बिहार

जाति जनगणना और आरक्षण को लेकर एक बार बबाल

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राजकुमार यादव की रिपोर्ट

बिहार /जाति जनगणना और आरक्षण को लेकर एक बार बहस फिर छिड़ गई है ।पहला सवाल जाति जनगणना को लेकर है। कुछ लोग कहते हैं, कि 1931 की जाति जनगणना के बाद से ही भारत में जातिवाद बढने लगा और इसके बाद जातियो के बीच अन्तर परिवर्तन की गतिशीलता भी न्यून हो गई क्योंकि इस गणना के बाद हर जाति श्रेष्ठता भाव से भर गई थी । इस तर्क से ऐसा लगता है कि या तो जातियों की उत्पत्ति 1931 की जनगणना के बाद हुई है और नहीं तो कम से कम जातियों के ऊंच नीच का भेदभाव इसी जनगणना की देन है ।यही तर्क कमोबेश उन सभी बुद्धिजीवियों द्वारा दिया जाता है जो जाति जनगणना के विरोध में है।इस देश मे जाति मौर्य साम्राज्य के बाद इस देश की हकीकत है और इसने ही समाज को लगातार कमजोर किया है ।इस समाज के स्तरीकरण को धार्मिक ग्रन्थों में औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए अनेकों बार लिखा गया है और इसे धार्मिक परम्पराओ के माध्यम से इसे समाज में इतना गहरा उतार दिया गया है कि इस देश की और विशेषकर हिन्दू समाज की कल्पना जाति संरचना के बिना नहीं की जा सकती है । ऐसी स्थिति में यदि कोई राज्य अपने नागरिकों की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति जानना चाहती है तो उसे सघन और विस्तृत सर्वे की आवश्यकता होगी और इसके लिए ही सरकारी एजेंसियां प्रत्येक दस साल के अन्तराल पर जनगणना करती है ।ब्रिटिश इंडिया में 1881में पहली जनगणना की गई थी और फिर हर दस साल के अन्तराल पर जनगणना की जाने लगी थी ।
1931 में ब्रिटिश सरकार इंडिया के जनमानस को समझने के लिए जाति प्रिज्म से देश को समझना चाहते थे ताकि शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए नीति बनाने के पहले वह यह जान सके कि उनके राज्य में किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है ? इस जनगणना के आंकड़ो ने ही सदियों से विभाजित समाज की हकीकत की परतें खोल दी थी । लेकिन आजादी के बाद हुई जनगणना में भारत सरकार ने जाति आधारित जनगणना करने से मना कर दिया था और तब से अभी तक जाति की गणना नहीं की जा रही है और तर्क यह है कि जातियों की गणना समाज को और विभाजन और अराजकता की ओर ले जाएगा । इससे तो यह लगता है कि जातियों की गणना करने से समाज में जाति आधारित भेदभाव बढेंगे है लेकिन हकीकत तो यह है कि जातिया 1931 की जनगणना के पहले से है और जाति गत विषमता भी सदियों से है।
राजनीतिक विश्लेषक गुलाब चन्द्र यादव का मानना है कि जातिगत जनगणना से न ही जातियो की उत्पत्ति हुई और न ही यह हकीकत जानने से जाति व्यवस्था और मजबूत हो जाएगी। जातियों में बंटे देश मे विकास की रोशनी भी इसी जाति प्रिज्म से निकल कर आगे बढती है और विकास की पहुंच और उसकी परिणति भी सभी के लिए एक समान नहीं है ।ऐसी परिस्थितियों में जाति गत आंकड़े से समाज के हर हिस्से के विकास की यात्रा को समझने में संवैधानिक संस्थाए की मदद करेंगे ताकि प्रभावी नीतिया बनाई जा सके जिसके कारण सामाजिक और शैक्षणिक विषमता दूर हो सकें।
इस प्रकार जाति जनगणना जाति गत भेदभाव कम करने मे सहायक होगी। यदि सरकारें और समाज जाति पहचान को लेकर आंख बन्द कर ले तब भी यह सम्भव नहीं है कि आप सामाजिक और शैक्षणिक विषमता दूर किये बिना ही उसको खत्म कर पाएंगे । इसका कारण यह है कि भारतीय समाज की संरचना जाति पहचान और उसके स्तरीकरण के सिद्वान्त पर आधारित है जो संविधान की आदर्श सोच के विपरीत है ।संविधान एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष समाज की कल्पना करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था और सामाजिक हैसियत बदलने का समान अवसर हो परन्तु आजादी के 75 साल बाद भी यह पिरामिड शक्ल में है जिसमें बहुसंख्यक समुदाय उसके आधार पर है और उनकी स्थिति भी धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक मानकों पर निम्न है और शीर्ष पर वे जाति समूह हैजो अल्प संख्यक है लेकिन उनके सामाजिक,धार्मिक ,सामाजिक,शैक्षणिक और आर्थिक मानकों मे ऊपर है और यह स्थिति कमोबेश स्थिर है।
सामान्य रूप से आप अपनी मेहनत और प्रतिभा से अपने जीवन काल में अपनी सामाजिक शैक्षणिक और धार्मिक हैसियत नहीं बदल सकते हैं ।जाति गत संरचना और इसके श्रेणीकरण के ईकोसिस्टम मे किसी समुदाय के सदस्यों को उपलब्ध विकल्प और अवसरों का सीधा समबन्ध उसकी जाति हैसियत है । इसमें परिवर्तन आता है पर उसमें सदियाँ लग जाती है और इसकी इकाई भी व्यक्ति नहीं है बल्कि यह पूरी की पूरी जाति समूह की गतिशीलता है । यह परिवर्तन भी दो धुव्र के बीच ही सुनिश्चित है।
इस सामाजिक गतिशीलता को महान समाज शास्त्री एम एन श्रीनिवासन संस्कृतिकरण कहते हैं । आजादी के पहले तक यह गति शीलता जातियों का ब्राह्ममणीकरण होना था और जातियों मे होड़ होती थी कि वो ब्राह्मन मूल्यों को अधिक से अधिक व्यहार में लाए और अपनी जाति को वर्तमान पायदान से ऊपर के पायदान पर स्वीकृति दिलाएँ ।लेकिन अम्बेडकर और पेरियार के मनुवाद विरोधी विचारधारा के प्रभाव के कारण अब दलित और पिछड़े जातियां सरकारों से सदियों से किए गए उनके शोषण के प्रतिकार के लिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी सरक्षंण और सकारात्मक कार्यवाही की मांग कर रहे हैं ।अब प्रश्न यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में आप बहुसंख्यक समुदायों के लिए उनके आगे आने के अवसरों के निर्माण के लिए नीतियां क्यों नहीं बनाएँगे और यदि हाँ तो यह बिना आंकडे के कैसे हो सकता है ?
आप जाति जनगणना को सामाजिक विघटन का कारण क्यों मान रहे हैं ?क्या आप मानते हैं कि धर्म के आंकडे इकठ्ठा करने के कारण धार्मिक दंगे होते हैं ?इस देश में दंगे और विभाजनकारी राजनीति धर्म के नाम पर की जाती है लेकिन उसकी गणना तो की जाती है। यदि जाति जनगणना होगी तो सरकारें यह जानकारी इकठ्ठा कर सकें गे कि 75साल मे विकास की रोशनी समाज के किस हिस्से तक नहीं पहुंच सकी है या रोशनी प्रयाप्त मात्रा में नहीं है ।एक लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्ष देश में जहां राज्य सैद्धान्तिक रूप से धर्म के आधार पर नीति और योजना नहीं बना सकता हैं वहां धर्म के नाम पर जनगणना करना संविधान के ही खिलाफ नही है तो फिर जाति जनगणना के खिलाफ इतना दुषप्रचार क्यों है। कट्टर पंथी विचारधारा जो जाति श्रेष्ठता और जाति गत भेदभाव के विचारों की खुली समर्थक है, को दंगे करने के लिए धर्म के आंकड़े तो मुफीद लगते है,लेकिन जाति जनगणना का विरोध वह यह कह कर करते हैं कि इससे समाज में विभाजन बढेगा।यह समाज और सरकार दोनों का ढोंग है ।अगर समाज का चेहरा बदसूरत है तो उसका इलाज यह नहीं है कि आप शीशे में चेहरा देखना ही छोड़ दे। आपको इलाज के लिए बदसूरत चेहरे का सामना शीशे में करना चाहिए ताकि आप उसका बेहतर इलाज कर सकें।