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सांसद-विधायकों के कामों का सोशल ऑडिट होना चाहिए अब

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राम दुलार यादव

लोकतंत्र की सफलता के स्‍तंभ, लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की रीढ़ हैं। उनको बनने और बनाए रखने की प्रक्रिया में हर साल अरबों रुपये खर्च होते हैं। जिस देश में सरकार बिकती है, वहां सरकार बनाने वाले जनप्रतिनिधि बिकते हैं तो उस पर बहस या मंथन करने की जरूरत नहीं है। घर में गाय आयेगी तो गोबर भी आयेगा ही।
देश के मतदाता सरकार नहीं, विधायक या सांसद चुनते हैं। यही विधायक या सांसद मिलकर सरकार बनाते हैं।

इसलिए संविधान में विधायक या सांसदों का कार्यकाल तय किया गया है, सरकार का कोई कार्यकाल निर्धारित नहीं है। उसकी अवधि एक दिन भी सकती है या पूरे पांच साल भी। इंदिरा गांधी ने संसद या विधान सभाओं की अवधि 1974 आंदोलन के दौरान छह साल कर‍ दी थी, तब सरकार की अवधि स्‍वत: छह साल की हो गयी थी। यह अलग बात है कि उसी दौर में देश में आपात काल लागू हो गया था।
हमारी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में सबसे ताकतवार प्राणी होते हैं सांसद और विधायक। क्‍योंकि सरकार इनकी ही संख्‍या पर निर्भर करती है। वे देश की सुरक्षा को ठेके पर दे सकते हैं या लोकतंत्र को ठेंगे पर रख सकते हैं। यह उनकी मर्जी। कृषि कानून भी यही बनाते हैं और कृषि कानून वापस भी यही लेते हैं।
एक मतदाता के रूप में आपने कभी सोचा है कि आपके वोट से निर्वाचित सांसद या विधायक आपके लिए क्‍या करते हैं।

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में एक सांसद या विधायक को टिकट मिलने और जीत-हार में सबसे बड़ी भूमिका उनकी जाति की होती है। ये लोग निर्वाचित होने के बाद अपनी जाति के लिए क्‍या करते हैं। हम सरकार के कामों पर बहस करते हैं, कभी विधायक या सांसद के कामों पर बसह नहीं करते हैं।
अब विधायक या सांसदों के कार्यों का सोशल ऑडिट भी किया जाना चाहिए। जिस जाति या जाति समूह के कोटे के आधार पर उन्‍हें टिकट दिया जाता है, उनके लिए कौन सा काम किया, इसका भी विश्‍लेषण किया जाना चाहिए।

राजनीतिक प्रोफाइल के साथ जा‍तीय या जाति समूह के प्रति उनके कार्यों के बारे में भी उनसे जानकारी हासिल करेंगे। यह काम सामाजिक संगठनों को भी करना चाहिए।