हवा दरख्तों से कहती है दु:ख के लहजे में अभी मुझे कई सहराओं से गुजरना है!
उप संपादक
हमारे देश मे जो पर्यावरण को नुकशान हो रहा हैं वह किसी से छिपा नही हैं ,हरे भरे पेड काटे जाते हैं इससे यह अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि हम जंगलों को किस कदर तबाह कर रहे हैं।
किसी ने क्या खूब कहा हैं कि किसी सजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे तभी तलक करें ये बसेरा दरख्त जब तक हरा भरा हो! हमारा देश दुनिया का ऐसा देश है जहां पर्यावरण को बचाने के लिए अनेक आंदोलन हुए हैं इन आंदोलनों ने देश के जंगलों और नदियों को बचाए रखने के प्रयासों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बल्कि हमारे लोकगीतों लोककला और साहित्य में भी विविध रूप में प्रकृति को बचाने का संदेश दिया जाता रहा है सन 1992 से प्रतिवर्ष 05 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। पर्यावरण दिवस का मुख्य केंद्र वायु प्रदूषण के नियंत्रण पर आधारित हैं उसके लक्ष्य को हमने कितनी गंभीरता से लिया है। इसका अंदाजा दिल्ली और अन्य महानगरों की हवा की गुणवत्ता से जाहिर हो रहा है। अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानून होने के बाद भी समूची दुनिया जलवायु परिवर्तन जल संकट प्रदूषण और जंगलों की आग से जूझ रही है। प्रतिवर्ष धरती के तापमान में भी लगातार वृद्धि हो रही है।जंगलों को बचाने और सहेजने में हमारे देश में इस दिशा में राजनीतिक चेतना की जरूरत है। जंगलों को जिस तरह से काटा जा रहा है इस स्थिति में शायर असद बदायुंनी का यह शेर याद आ रहा है ।हवा दरख्तों से कहती है दुख के लहजे में अभी मुझे कई सहराओं से गुजरना है।