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भारतीय संविधान और हमारा गणतंत्र

बिहार हलचल न्यूज ,जन जन की आवाज
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  प्रदीप कुमार नायक

 

कई सदियों की गुलामी के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को हमारा देश एक संप्रभुता सम्पन्न गणतंत्र घोषित हुआ।गणतंत्र राष्ट्र की घोषणा और गणतांत्रिक भारत का संविधान प्रत्येक देशवासी के मौलिक अधिकारों की गारंटी के साथ-साथ शिक्षा, समानता,सामाजिक तथा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का संबल प्रदान करता हैं।इतना ही नहीं हमारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को एक राष्ट्र के रूप में उदार एवं व्यापक लक्ष्यों को आत्मसात करने की अनिवार्यता बनाता है।क्योंकि संविधान शासन से सम्बद्ध कार्यकलापों का संचालन करने मात्र का अधिकार प्रदान नहीं करता,बल्कि विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं कर्तव्यों का भी निर्देश रेखांकित करता है।
गणतंत्र दिवस सदा की भांति इस वर्ष भी 26 जनवरी को ही मनाया जा रहा है।अब समय आ गया है कि देश में जो भी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक के साथ शैक्षिक,सांस्कृतिक एवं समरस समाज की आकांक्षा एवं अपेक्षा जागृत हो रही है।उसके आलोक में सर्वागीण,तटस्थ विश्लेषण किया जाय कि संविधान द्वारा प्रदत्त “गण” के हितार्थ “तंत्र” शक्ति का वर्तमान स्वरूप क्या है? उसमें लोकतंत्र,समाजवाद,संप्रभुता एवं धर्म निरपेक्षता का सर्वोच्च स्थान है।पर आज हालत भिन्न है।
किसानों,युवाओं, गरीबों के लिए घोषणाएं जुमला साबित हो रही है।बुनियादी तौर पर लोकतंत्र में सबकी हैसियत समान है।लेकिन 51 प्रतिशत और 49 प्रतिशत की विभाजन रेखा,अल्पमत व बहुमत का लोकतंत्र बन गया है।जहाँ बहुसंख्यक गरीब,पिछड़े अथवा हाशिए पर खड़ी जनता की कोई आवाज़ नीति निर्धारण में नहीं है।समाजवाद का अर्थ समानता वाला समाज हो।सभी क्षेत्रों में समता की व्यवहारिक पर उठाएं गए कई प्रश्नों के उत्तर में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने संभव समानता की बात कहीं थी।

IMG 20230120 WA0142 1 भारतीय संविधान और हमारा गणतंत्रलेकिन आज की हकीकत यह है कि विषमता समाजवादी कल्पनाओं को विस्फोटक स्तर पर जाकर मुहं चिढ़ा रहीं हैं।संप्रभुता का सीधा और सरल अर्थ है कि हम एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना अपना निर्णय लेने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है।पर निर्णय लेने की स्वायत्तता नई आर्थिक नीति के नाम पर जबसे अमल शुरू हुआ,इसमें तीब्रता से ह्रास होता हुआ देखा जा रहा है।आर्थिक गतिविधियों से संबद्ध निर्णयों में अनेक अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, अमीर देशों तथा देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों, कारोबारियों का प्रभाव और हस्तक्षेप स्पष्ट रूपसे दिखाई पड़ता हैं।खासकर नव उदारवाद के सुनहले सपनों की छाया में बन रही नीतियों के नाम पर एक तरफ जहां गरीबी और अमीरी का अंतर विस्फोटक स्तर तक बढ़ा है।वहीं तमाम आथिर्क निर्णय किसानों,मजदूरों तथा देश के गांव-गांव में फैले गरीबों के बजाय बड़े पूँजीशाहों और बाजार हित में लिए जा रहे है।
जहाँ तक धर्म निरपेक्षता का सवाल है, तो भारत संगम संस्कृति का पोषक और सर्वधर्म समभाव के प्रति निष्ठावान रहा है।बहुलता में एकता का पैगाम देनेवाला हमारा देश अंग्रेजी की राजलिप्सा के कुचक्र का शिकार होकर यानी हिन्दू और मुसलमानों के बीच फूट डालकर और नफ़रत को फैलाकर जो किया उससे भारत विभाजन का दंश हम आज भी झेल रहे है।अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के इतने वर्षों बाद भी हिन्दू और मुसलमानों के बीच तथा अनेकानेक जातियों के बीच विभाजन रेखा खिंच-खिंच कर वोटों के धुर्वीकरण द्वारा राजसत्ता पाने और उसे बनाएं रखने का जो क्रम चल रहा है, उसमें लोगों की सामाजिकता,भाईचारा और पड़ोस की भावना क्षत-विक्षत हो रहीं है।आज हालत यह है कि आम आदमी का दिमाग बट रहा है।न्याय,समानता,स्वतंत्रता, बंधुत्व की आशाएं सर्व साधारण के लिए बेमानी बन गईं है।
जबकि शासन के शिखर पर विराजमान लोगों और उनकी मंडली के इर्द-गिर्द खड़े लोगों का उच्चतम जीवन जनता के पैसों पर असीमित भोग विलास में लिप्त देखा जा सकता हैं।गरीबी,अशिक्षा, कुपोषण, गृहविहीनता,स्वास्थ्य की जर्जरता से जूझते सामान्य लोगों के लिए जीवन-यापन की न्यूनतम जरूरतों की कोई गारंटी नहीं है।फिर भी विविध किस्म के शासकीय संरक्षण प्राप्त विचौलिएं इन्हें नोच-नोच कर खाने के लिए गिध्द की तरह लगे है।जबकि आज भी देश के अस्सी फीसदी लोग,जो गाँवों में रहते और अभाव ग्रस्त है।उन सबको समान रूपसे दो वक़्त की रोटी और पीने योग्य साफ पानी की गारंटी भी नहीं की जा सकी।
देश का आम आदमी समस्याओं के इस मकड़जाल से निकलने के रास्ते की तलाश अब लाल आँखों से करने की ओर ताक-झांक करता प्रतीत हो रहा है।संसदीय राजनीति की बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक मतों के आधार पर जो मौजूदा जनतांत्रिक व्यवस्था चल रहीं है, उससे संविधान में उल्लिखित बुनियादी नीति-निर्धारक तत्वों में दर्ज राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक न्याय का लाभ समाज की पहुँच से बाहर है।जबकि अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और लगभग 60- 70 प्रतिशत लोगों की आमदनी 20- 30 रुपये की सीमा में हिचकोले खा रहीं हैं।युवाओं की बेरोजगारी का हाल यह है कि यदि चपरासी की नौकरी के लिए सौ स्थान रिक्त हो तो हजारों उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों के आवेदन डाले जा रहे है।मजदूरों के पास पर्याप्त काम नहीं और किसान घाटे की खेती से त्रस्त होकर आत्म हत्या कर रहें है।
कुल मिलाकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आज की दलीय राजनीति में शक्ति सम्पन्न पार्टियां जनहित से अधिक अपनी विचारधारा थोपने और जैसे-तैसे वोट हासिल करने पर ध्यान केंद्रित करता है।संविधान से प्राप्त निर्देशो के अनुसार वृद्धावस्था में मान वोचित जीवन -यापन के लिए पेंशन,बच्चों को स्वास्थ्य एवं खुशहाल बचपन उपलब्ध कराना,गरीबी-अमीरी की विषमता कम करना,न्याय सर्वसुलभ कराने के लिए नि:शुल्क कानूनी सहायता जैसी चीजें आज भी हाशिए पर खड़े लोगों के लिए ठंडे बस्ते में पड़ी बातों जैसी ही है।
जिसकी जीविका जमीन से जुड़ी हुई है और पेट खेत से जुड़ा है।उनके क़ृषि लागत पर पचास प्रतिशत देने का वादा तथा इसी प्रकार की लोक कल्याण की घोषणाओं पर अमल करने के बदले शासन के शिखर पर आसीन नेताओं को सरकार और राष्ट्र का पर्याय बताया जाने लगा है।राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र प्रीति-निरपेक्ष राष्ट्रवाद का ऐसा आडंबर आवाज़ उठाना देशद्रोह के समान हैं।लोकतंत्र के तमाम महत्वपूर्ण संस्थानों को निमंत्रण में लेने की दिशा में अनवरत प्रयत्न किए जा रहे है।ये कार्रवाईयां राष्ट्रीयता की तमाम महानताओं को संकीर्ण और प्रतिक्रियात्मक दायरे में समेटने के कारण बन सकते है।
महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में संसदीय राजनीति की सीमाओं का जो कटु शब्दों में उल्लेख किया था, आज उसकी सच्चाई सामने आता दिख रहा है।पूरी की पूरी भारतीय राजनीति वोट पाने और चाहे जो भी हो सत्ता प्राप्त करने की मशीनरी मात्र बनकर रह गई है।क्योंकि प्रतिनिधि के लोकतंत्र में लोक की हैसियत सिर्फ वोट डालने तक सिमटकर रह गया है,और “तंत्र” राजनीति का अधिष्ठाता बन गया है।”गण” के ऊपर “तंत्र” का शिकंजा ऐसा जिसमें “गण” का दम घूंट रहा है।वोट जनता का,उम्मीदवार दल का और सरकार प्रतिनिधियों की होने के बावजूद यह संगठन की ढांचा सारी शक्तियों को राजधानियों और मुट्ठी भर नेताओं के हाथ में केंद्रित करने का माध्यम बन गया है।
अतः देश की हालत बदलने और तवाही के वर्तमान से सुनहले भविष्य की ओर तेजी से बढ़ने के लिए विकेंद्रीकरण की ओर आगे बढ़ने की जरूरत है।जिसको कार्यान्वित करने का सशक्त माध्यम सहभागी लोकतंत्र ही हो सकता है।इस व्यवस्था में आगे बढ़ने और समता स्वतंत्रता एवं भाईचारे का विकसित समाज बनाने की शक्ति राजधानियों और मुट्ठीभर लोगों के हाथों से निकलकर गांव-गांव में रहने वाले सामान्य लोगों की ग्राम सभाओं के पास आए।ताकि जनता की शक्ति नव निर्माण के लिए आगे-आगे और राज्य की शक्ति सहायक की भूमिका में कार्यरत हो।यह व्यवस्था जनतंत्र और गणतंत्र की भूमिका सार्थक कर सकती है।
आज हर कोई चुनाव प्रणाली से असहमत प्रतीत होता है,और नेताओं के काम से नाखुश है।जरूरत है संशोधन लाने की, जिससे नेता अपने वादे न भूले और लोगों के विकास के लिए काम करे ताकि लोकतंत्र और गणतंत्र में जनता का विश्वास बना रहे।