बिहार

भ्रष्‍टतंत्र और मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ पर ही निशाना क्‍यों

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प्रदीप कुमार नायक

 

आज के इस आधुनिक युग मे जो भी सरकार आ रही वह मीडिया पर वैन लगाते आ रहीं क्योंकि भ्रष्टाचार को उजागर होने से आपसी तालमेल का दूसरा कोई फायदा उठा रहा है।आजादी मिलने से लेकर अभी तक मीडिया को लेकर सोच में काफी बदलाव आया है।मीडिया पहले समाज सेवा के तौर पर देखा जाता था धीरे-धीरे बिजनेस बन गया और बिजनेस होते हुए भी लोकतंत्र के चौथे पिलर के तौर पर मीडिया अहम भूमिका निभाता रहा। हालांकि कई मौके ऐसे भी आए हैं जब मीडिया पर निष्पक्ष नहीं होने के आरोप लगे हैं। सवालों के घेरे में आई है लेकिन क्या ऐसा अचानक हुआ है।और क्या इसके लिए सिर्फ मीडिया ज़िम्मेदार है? मीडिया की निष्‍पक्षता पर गैरजरूरी सवाल उठाए जा रहे हैं। सच्‍चाई से बौखलाया भ्रष्‍टतंत्र हमेशा मीडिया को ही निशाना क्‍यों बनता है? मौजूदा हालात में ऐसे सवाल उठाना जरूरी हो गया है।
ये माना जाता है कि मीडिया को निष्पक्ष होना चाहिए। ऐसे में किसी मीडिया हाउस के मालिक का किसी पार्टी विशेष के पक्ष में आने पर सवाल खड़े होना लाजिमी है।लेकिन इसके साथ कुछ और सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढने की कोशिश की जानी चाहिए। ये सवाल उठने चाहिए कि आखिर इसकी वजह क्या है? आखिर क्या वजह है जिसने ऐसे हालात बनाए और ऐसा करने के लिए किन ताकतों ने मजबूर किया।किसी आम आदमी से भी पूछकर देख लीजिए आज ऐसे हालात बन चुके हैं कि देश में करप्‍शन और कुशासन ने संवैधानिक संस्थानों तक की विश्वसनीयता को खतरे में डाल दिया है। ऐसा लगता है कि मीडिया भी प्रतिष्‍ठानों के दबाव में घुटने टेक चुका है।ऐसे में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ी तब उन्हें तरह तरह से परेशान करने की कोशिश की जाती रही हैं।मीडिया को लोकतंत्र के चौथे पिलर के तौर पर देखा जाता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद मीडिया की अहम भूमिका मानी जाती है और देश की आज़ादी के बाद से अब तक मीडिया ये भूमिका निभाता भी रहा है। मीडिया के इतिहास में इमरजेंसी के काले अध्याय की बावजूद मीडिया ने अपनी मजबूती कभी नहीं खोई और कई मामलों मे देश और समाज के लिए अहम भूमिका भी निभाई है। देश को आजादी मिलने के बाद मीडिया के स्वरूप और इसके दायरे में एक बड़ा बदलाव आया। मीडिया के लिए हालात अब उतने मुश्किल नहीं थे जितने आज़ादी से पहले थे। समाचार-पत्रों को आजादी तो मिली ही थी साथ ही साथ साक्षरता दर भी बढ़ रही थी।इसका नतीजा ये हुआ कि बड़ी संख्या में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। साथ ही रेडियो और टेलीविजन के विकास के लिए भी कदम उठाए गए जिनकी वजह से मीडिया जगत में बड़ा बदलाव देखा गया। अब मीडिया सच को ज्यादा ताकत और जिम्मेदारी के साथ लोगों के सामने ला रहा था। 1947 से लेकर 1975 तक का दौर मीडिया के लिए विकास का दौर था लेकिन 1975 में एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बेड़ियां डाल दी गईं। इंदिरा गांधी उस वक्त प्रधानमंत्री थीं और विपक्ष भ्रष्टाचार और कमजोर आर्थिक नीतियों को लेकर उनके खिलाफ सवाल उठा रहा था। अपने खिलाफ बढ़ रहे विरोध को दबाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी का एलान करके मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी। मीडिया की आजादी छीनी जा चुकी थी।
राजनीति के गलियारे पर भ्रष्टाचार और दबंगई के दौर में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इस समय बेहद नाजुक दौर से गुजर रही हैं।
आज निर्भीक, ईमानदार पत्रकारों पर प्राथमिकी दर्ज कर जेल के सलाखों के पीछे धकेल दिया जाता हैं, उनकी हत्या तक कर दिया जाता हैं।पत्रकार पर प्राथमिकी दर्ज ,धमकियां देना तथा हत्या कर देना। यह पत्रकारिता जगत,अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र की हत्या हैं।
पत्रकारिता की दुनिया के लिए यह काले दिन हैं।जब बुलेट से कलम का कत्ल किया जाता हैं।जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सरेआम खून किया जा रहा हैं
एक निर्भिक,ईमानदार,बेवाक कलम के सिपाही पत्रकार की बेरहमी से झूठे आरोप लगाकर खुलेआम जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाता हैं, उन्हें धमकियां मिलते हैं यहां तक कि उनकी हत्या तक कर दिया जाता हैं।आखिर इस तरह हम कब तक केवल निन्दा और अफसोस करते रहेंगे।
यह प्राथमिकी,हत्या और मारने की धमकी न थमने वाला सिलसिला आखिर कब थमेगा ?कई खुलासों के बैंक तैयार करने वाले पत्रकार आम तौर पर सबूत जुटाने में कई लोंगो के निशाने पर हो जाते हैं।
निशाना तब तक नहीं चूकता हैं, जब तक इन निशाने बाजों के हाथ कानून और व्यवस्था की पकड़ से ढीले नहीं किए जाते।यह वह कोण हैं जिसमें राजनीति गंदगी दिखाई पड़ती हैं।भारत में पत्रकारों को सबसे ज्यादा खतरा नेताओं से हैं।पिछले पच्चीस सालों में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों की हत्या हुई जो राजनीति विट कवर करते थे।
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले पच्चीस सालों में जिन पत्रकारों की हत्या हुई हैं, उनमें 47 फीसदी राजनीति और 21 फीसदी बिजनेस कवर करते थे।
ये आंकड़े साबित करते है कि देश में पत्रकारों के खिलाफ नेताओं और उधोगपतियों के अलावे धर्म के ठेकेदार का एक गगठजोड काम कर रहा हैं।पत्रकारों का हर वह शख्त दुश्मन होता हैं जिनके हाथ काले कारोबार से सने होते हैं।नेता,पदाधिकारी, माफिया,उग्रवादी,आतंकवादी,धर्म के ठेकेदार सभी के लिए पत्रकार आँख की किरकिरी बना रहता हैं।
पत्रकार सुरक्षा कानून एक मात्र हथियार हैं, जिससे कलम के सिपाहियों की रक्षा हो सकती हैं।पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने के लिए हमें कोई ठोस कदम उठाने चाहिए।यह हमारे वजूद और अस्तित्व की लड़ाई हैं।चौथा स्तम्भ के वजूद को बचाने के लिए हम सभी पहल करें।
दूसरी ओर कोई भी कानून क्यों नहीं आ जाय जब तक हम सभी पत्रकार एक नहीं होंगे,तब तक कुछ नहीं हो सकता।कल किसी पत्रकार पर प्राथमिकी दर्ज हुई,हत्या हुई तथा उन्हें धमकियां मिली। आज हम जैसे कोई और जांबाज, निर्भिक,ईमानदार,बेवाक पत्रकार की खुलेआम झूठे आरोप लगाकर मुकदमें में फसाया जाएगा,उन्हें धमकियां मिलेगी तथा उनकी हत्या कर दिया जाएगा।कल किसी और का नंबर आएगा।यह सिलसिला शायद चलता ही रहेगा।कोई कुछ नहीं कर सकता।शायद हम मूकदर्शक बनकर यह सब सिर्फ और सिर्फ तमासा देखते ही रहेंगे।
इस तरह अभिव्यक्ति की आज़ादी, कलम के सिपाहियों पत्रकार की खुलेआम मुकदमें में फसाकर,धमकियां देकर तथा हत्या करके लोकतंत्र को गला घोंट-घोंटकर मार दिया जाएगा।कोई कुछ नहीं कर सकता।हम सिर्फ तमाशा देखते ही रहेंगे।