बिहारक्राइम

मोकामा – यादव-भूमिहार को भड़काने की साजिश

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न्यूज डेस्क 

मोकामा की जिस घटना में बाहुबली दुलारचंद यादव की जान गई, वह बिहार को फिर उसी पुराने सवाल के सामने खड़ा कर देती है कि क्या सत्ता की लड़ाई में समाज को फिर से जातीय खाई में धकेलने की साजिश रची जा रही है? ऊपर से यह दो बाहुबलियों की भिड़ंत लगती है, पर भीतर झांकें तो मामला अधिक गहरा और भयावह दिखता है। यह कोई सामान्य हत्या नहीं, बल्कि वैमनस्य फैलाकर दो दबंग जातियों को भड़काने की सुनियोजित चाल प्रतीत होती है।

दुलारचंद की हत्या पर संवेदना स्वाभाविक है। किसी की भी जान इस तरह नहीं जानी चाहिए। मगर उसी सांस में यह भी कहना होगा कि न दुलारचंद कोई संत थे, न अनंत सिंह। दोनों उस बाहुबल के प्रतीक हैं जिसने बिहार की सियासत, विकास और समाज को दशकों तक हिंसा के दलदल में फंसाए रखा है। अब वही बाहुबल फिर सक्रिय होता दिख रहा है। बस चेहरे और तरीके बदल गए हैं।

अगर बिहार को इस आग से बचाना है तो भावनाओं से नहीं, तर्क और जांच से चलना होगा। सबसे पहले सभी वायरल फुटेज और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों का तार्किक विश्लेषण करके षड्यंत्र का निष्पक्ष पर्दाफाश करने की जरूरत है। फॉरेंसिक साक्ष्यों की पड़ताल हो और सबसे बढ़कर जांच राजनीतिक दबाव से मुक्त होनी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता, किसी भी पक्ष के बयान को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता।

बयानों में विरोधाभास किसी बड़ी साजिश की ओर संकेत करता है। घटना के बाद दो वीडियो सबसे ज्यादा वायरल हुए। दोनों में कहानी अलग-अलग है। पहले वीडियो में जनसुराज के प्रत्याशी पीयूष प्रियदर्शी बोलते दिखते हैं कि उनकी हत्या की यह साजिश थी, लेकिन उनकी गाड़ी में दुलारचंद बैठे थे, इसलिए उन्हें मार दिया गया। पीयूष कहते हैं कि “अनंत सिंह ने दुलारचंद पर हाथ उठाया।” मगर पीयूष को एक खरोंच तक नहीं आती। न कपड़े फटे, न चोट आई। इतना बड़ा हमला हो गया और उन्हें देर तक यह भी पता नहीं चला कि लाश गिर चुकी है। घटना के तुरंत बाद पीयूष एक वीडियो में बयान देते हुए मोबाइल के शीशे में बाल ठीक करते दिखते हैं। यह विरोधाभास संदेह जगाता है।

दूसरे वीडियो को भी देखिए, जिसमें दुलारचंद के पोते नीरज यादव का बयान है। नीरज साफ़ कहते हैं कि वे अपने दादा के साथ राजद का प्रचार करने गए थे। उनसे यह बात तीन बार पूछी गई और हर बार यही जवाब दिया। नीरज का यह बयान पीयूष के कथन से बिल्कुल अलग दिशा में जाता है। एक कहता है जनसुराज का प्रचार था, दूसरा कहता है राजद का। दोनों अलग-अलग गाड़ियों में थे और दोनों का दावा है कि दुलारचंद उनके ही साथ थे। सवाल है कि सच कौन बोल रहा है? दुलारचंद यादव गाड़ी में किसके साथ थे-पीयूष के या नीरज के? परस्पर विरोधी यह बयान पूरे घटनाक्रम को संदिग्ध बना देता है।

तीसरा पहलू उन वायरल वीडियो से जुड़ा है जिनमें दुलारचंद यादव खुद पत्थर चलाते नजर आते हैं। सफेद गंजी, लूंगी और जूतों में वे गाड़ियों की ओर ईंट फेंक रहे हैं। सवाल है कि अगर यह अनंत सिंह के काफिले की गाड़ियां थीं, तो दुलारचंद सबसे पीछे की गाड़ी पर इतनी दूर से हमला करते देखे जा रहे हैं, फिर उन्हें रौंदा कैसे गया? जब अनंत के काफिले की सारी गाड़ियां काफी आगे निकल चुकी थी तो फिर उन्हें किस गाड़ी से कुचला गया और वह गाड़ी किसकी थी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब दिए बिना किसी को दोषी कहना जल्दबाज़ी होगी।

फिर वह दृश्य, जब शव को ले जाया जा रहा था और अचानक गोलीबारी की खबर आई। कहा गया कि “अनंत सिंह के गुंडों” ने शव पर फायरिंग की। लेकिन यह वही बिंदु है जहां पूरी कहानी साजिश की शक्ल लेने लगती है। कोई भी बाहुबली और अनुभवी दुश्मन अच्छी तरह जानता है कि शव पर गोली चलवाना आत्मघाती कदम होगा। ऐसे में यह अधिक संभावित लगता है कि कोई तीसरा तत्व पर्दे के पीछे से यादव और भूमिहारों के बीच खूनी टकराव भड़काने का प्रयास कर रहा है।

यही वह जगह है जहां अनुसंधान को पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। पुलिस को अपनी पूरी क्षमता के साथ चुनाव को आहत करने वालों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करनी होगी। देखा जाना चाहिए कि दुलारचंद यादव की हत्या से किसे फायदा होता- अनंत सिंह को या किसी अन्य को? हो सकता है कि अनंत सिंह ने यह सोचकर वार किया हो कि दुलारचंद के रहते चुनाव नहीं जीत सकते, लेकिन यह तर्क संगत नहीं लगता, क्योंकि अनंत सिंह यादव वोटरों के वगैर भी चुनाव जीतते रहे हैं।

यह भी संभव है कि किसी पक्ष ने साजिश के तहत दुलारचंद की बलि दे दी हो या फिर किसी तीसरे पक्ष ने बहती गंगा में अपने गंदे हाथ धो लिए हों। सब कुछ संभव है और इसलिए पुलिस को हर कोण से जांच करनी चाहिए।

कहा जा रहा है कि दुलारचंद को पहले पैर में गोली मारी गई, फिर गाड़ी से कुचल दिया गया। प्रश्न उठता है कि हत्यारा चाहता क्या था? यदि मारना ही उद्देश्य था तो सीने में गोली मारी जा सकती थी। गाड़ी चढ़ाने वाली बात से लगता है कि हत्यारा नजदीक में था। फिर पैर में गोली क्यों?

इसकी भी संभावना है कि गोली मारने और शरीर पर गाड़ी चढ़ाने की घटना मृत्यु के बाद हुई हो, ताकि किसी को फंसाया जा सके। ऐसी मिसालें पहले भी रही हैं जब किसी निर्दोष को फंसाने के लिए साक्ष्य गढ़े गए। इसलिए जांच का हर कदम अत्यंत वैज्ञानिक और निष्पक्ष होना चाहिए।

राजनीति की जमीन पर यह भी कम दिलचस्प नहीं कि बिहार में यादवों का वोट बैंक लगभग 14 प्रतिशत है। इतनी बड़ी संख्या का सामाजिक गुस्सा किसी के लिए भी चुनावी लाभ में बदला जा सकता है। यही वजह है कि इस घटना को भावनात्मक रूप देकर पूरे बिहार को जातीय आग में धकेलने की कोशिश हो रही है। यह सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति का हिस्सा भी दिखता है।

समाज को यह समझना होगा कि बाहुबली किसी जाति का गौरव नहीं होते। वे विकास के बड़े अवरोधक होते हैं। उनके बाहुबल से आम जन को सिर्फ और सिर्फ परेशानी होती है। अगर बिहार ने एक बार फिर उन्हें सिर पर बिठा लिया, तो जो शांति पिछले दशक में लौटी है, वह फिर लहूलुहान हो जाएगी।

दुलारचंद यादव की हत्या का सच सामने आना ही चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी ज़रूरी है कि इस घटना की ओट में जातीय जहर को फैलने से रोका जाए। दोषी चाहे जो हो, उसे कानून के कठघरे में लाना ही न्याय होगा और यही सुकून चाहने वाले बिहारियों की असली जीत भी होगी।