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भारत की चुनावी प्रक्रिया ईमानदार, निष्पक्ष और लोकतांत्रिकअथवा प्रथम दृष्टया बेईमान

बिहार हलचल न्यूज ,जन जन की आवाज
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ओमशंकर

यह लेख भारत में निर्वाचन प्रक्रिया की निष्पक्षता, पारदर्शिता और संस्थागत विश्वसनीयता का समालोचनात्मक विश्लेषण है। यह चुनाव आयोग, न्यायपालिका, वित्तीय पारदर्शिता, राजनीतिक दुरुपयोग और तकनीकी विश्वसनीयता से संबंधित अनेक प्रकरणों को को साक्ष्यों के तौर पर दर्शाते हैं, कि कैसे भारत की चुनावी प्रक्रिया में संरचनात्मक और प्रक्रियागत विसंगतियाँ पिछले 11 सालों से गहराती जा रही हैं।

यह अध्ययन अवलोकन, न्यायालयीय टिप्पणियों, संस्थागत निर्णयों और प्रशासनिक आचरणों के आधार पर प्रमुख प्रश्नों को पुनः केंद्र में लाता है —

क्या वर्तमान परिस्थितियों में भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव हैं

हम सब जानते हैं कि लोकतांत्रिक शासन–व्यवस्था की मूल आत्मा स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनावों में निहित है।

जब चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप, वोटरों के ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव, संस्थागत पक्षपात या प्रशासनिक नियंत्रण के साक्ष्य सार्वजनिक हो, तो चुनाव परिणाम सत्ताधारी दलों की योजनाओं पर हीं निर्भर हो जाते हैं।

आज मेराउद्देश्य भारत में चुनावों को प्रभावित करनेवाले उन कारकों का विश्लेषण करना है जो समकालीन भारतीय चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।

1. संवैधानिक एवं संस्थागत हस्तक्षेप (Constitutional and Institutional Manipulations)

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निष्पक्ष निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति संबंधी दिए गए ऐतिहासिक निर्णय को विधायी संशोधन द्वारा परिवर्तित किया जाना चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

नियुक्ति प्रक्रिया को कार्यपालिका–प्रभावित बनाना, तथा चुनाव आयुक्त को दंडात्मक जवाबदेही से बाहर करना, संस्थागत संतुलन को कमजोर करता है।

इसी प्रकार, न्यायालय के अनेक आदेशों—विशेषकर CCTV निगरानी, EVM रखरखाव और मतगणना संबंधित निर्देशों—का अनुपालन न होना चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता को संदेहास्पद बनाता है।

2. EVM–VVPAT विश्वसनीयता और तकनीकी प्रश्न (Technical Reliability Concerns)

सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुब्रह्मण्यम स्वामी बनाम भारत सरकार (2013) में EVM की संभावित अविश्वसनीयता पर टिप्पणियाँ देते हुए VVPAT की अनिवार्यता को आवश्यक माना गया था। इसके बावजूद आज भी EVM आधारित मतदान ही निर्णायक माना जाता है, जबकि मतगणना के समय EVM–VVPAT मिलान को सतही तर्कों से खारिज कर दिया जाता है।

इसके अतिरिक्त, कई राज्यों में EVM शिकायतों, मशीनों की अदला-बदली और रिकॉर्ड संरक्षण में असंगतियों ने तकनीकी पारदर्शिता को लेकर व्यापक शंका उत्पन्न की है।

3. वित्तीय हस्तक्षेप और चुनावी अखंडता (Financial Intervention and Electoral Integrity)

इलेक्टोरल बॉन्ड और पीएम-केयर्स फंड जैसे अपारदर्शी वित्तीय तंत्रों ने चुनावी वित्त पोषण में अभूतपूर्व असंतुलन और धन-बल की निर्भरता बढ़ाई है। चुनावों से ठीक पहले लक्षित मतदाताओं के खातों में सरकारी लाभ या योजनाओं के नाम पर बड़े पैमाने पर धन अंतरण (direct benefit transfer) राजनीतिक प्रभाव हेतु एक निर्णायक उपकरण की तरह उपयोग किया गया है।

इस प्रकार की “प्री–इलेक्शन फिस्कल मैनीपुलेशन” नैतिक–चुनावी मानकों का स्पष्ट उल्लंघन है।

4. जांच एजेंसियों का राजनीतिक दुरुपयोग (Instrumentalization of Enforcement Agencies)

ED, CBI और आयकर विभाग जैसे संस्थानों की कार्रवाईयों का चुनाव से ठीक पहले विपक्ष के विरुद्ध तीव्र होना, जबकि सत्ताधारी दलों पर समान कठोरता का अभाव होना, संस्थागत निष्पक्षता की अवधारणा को चुनौती देता है।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमना द्वारा यह सार्वजनिक स्वीकार करना कि सरकार झूठे मुकदमों में फंसाकर मनचाहे फैसले करवाती है, न्यायिक स्वतंत्रता और राजनीतिक दबाव के गंभीर प्रभावों को उजागर करता है।

5. न्यायिक हस्तक्षेप और चुनावी विवाद (Judicial Oversight and Electoral Disputes)

कई मामलों में न्यायालयों द्वारा चुनावी अनियमितताओं के ठोस साक्ष्य मिलने पर परिणाम पलटने तक की नौबत आई है। इसके बावजूद व्यापक स्तर पर चुनावी धांधली के आरोपों पर न्यायपालिका की मूक भूमिका लोकतांत्रिक संस्थागत उत्तरदायित्व पर प्रश्नचिह्न छोड़ती है।

इस परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका मात्र एक निरीक्षक की भूमिका में दिखती है, संरक्षक की नहीं।

6. क्या वर्तमान प्रक्रिया स्वतंत्र है?

उपरोक्त सभी तत्व संकेत करते हैं कि भारतीय चुनावी प्रणाली में.

संस्थागत निष्पक्षता

तकनीकी विश्वसनीयता

वित्तीय पारदर्शिता

प्रशासनिक तटस्थता

न्यायिक सक्रियता

सभी में गिरावट दर्ज की जा रही है।

चुनाव की प्रक्रिया और परिणाम कई बार “सत्ताधारी–अनुकूल” प्रतीत होते हैं, जो लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा की प्राकृतिकता को कमजोर करते हैं।

इन सभी परिस्थितियों के पश्चात यह प्रश्न स्वाभाविक है:
क्या भारत के वर्तमान चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष कहे जा सकते हैं?

सार्वजनिक क्षेत्र में दिखाई देने वाली चुनावी अनियमितताओं, संस्थागत हस्तक्षेपों, तकनीकी संदेहों और वित्तीय नियंत्रणों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि चुनावी प्रक्रिया पर गंभीर प्रश्नस्वरूप चुनौतियाँ उपस्थित हैं।

ऐसे में विपक्षी दलों के पास चुनावी मैदान में उतरने से पूर्व कौन सा विकल्प शेष रह जाता है ।

सिवाय इसके कि देशव्यापी लोकतांत्रिक आंदोलनों के माध्यम से लेवल प्लेइंग फील्ड सुनिश्चित किया जाए और एक बार फिर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव प्रणाली की पुनर्स्थापना के लिए दबाव बनाया जाए।