तेजस्वी का प्रण बिहार के गरीबों का रण
अरुण आनंद
निर्वाचन आयोग ने बिहार में चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी है। पूरे राज्य में 6 और 11 नवंबर को यह चुनाव दो चरणों में होना है और 14 तारीख को मतगणना और उसके परिणाम की घोषणा होनी है। चुनाव की घोषणा होते ही बिहार ‘मीडिया छावनी’ में तब्दील हो गया है। सैकड़ों टीवी चैनल, सोशल मीडिया, रिल्स कंपनियां और प्रिंट मीडिया के लोग बिहार चुनाव की अटकलों और उनके गुणा-गणित में इन्वॉल्व हो गए हैं। बिहार में मुकाबला महागठबंधन और एनडीए इन्हीं दोनों घटकों के बीच है। महागठबंधन के भीतर सीट वितरण और उम्मीदवार चयन को लेकर जो अटकलें थीं, वह हल कर ली गई हैं। तेजस्वी प्रसाद यादव को विपक्षी गठबंधन का मुख्यमंत्री चेहरा पेश किया गया है। जबकि एनडीए गठबंधन ने अभी तक मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है। गृहमंत्री अमित शाह ने तो यहां तक कह दिया है कि वह बिहार का चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ेंगे, लेकिन चुनाव के बाद विधायक दल इस बात का निर्णय करेगा कि बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा ?
नीतीश कुमार की अचेतावस्था को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने एक अवसर के रूप में लिया है। इस चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है हेलीकॉप्टरों की गूंज से लेकर बड़े-बड़े प्रचार की होर्डिंग और सैकड़ों गाड़ियों के काफिले से लेकर दिग्गज नेताओं के बिहार में हो रहे जमघट, यह सब कुछ इसी जद्दोजहद में है कि किसी तरह बिहार की सत्ता उनके पाले में हो। लेकिन उन्हें इस बात का भी इलहाम है कि तेजस्वी की ‘विकास की आंधी’ में वे कहीं नहीं हैं, यह भी कि बिहार की जनता अब भाषणों से ज्यादा अपने हालात देख रही है और उसे याद है कि पिछली बार भी वादों की बरसात हुई थी, पर बिहार उससे कभी सिंचित नहीं हुआ। शासन-प्रशासन और कॉरपोरेट के संसाधनों को भाजपा ने बिहार में झोंक दिया है। एक बार फिर से धर्म के सहारे हिन्दू-मुस्लिम में विभेद पैदा करना शुरू कर दिया गया है। अपनी सार्वजनिक सभाओं में प्रधानमंत्री यहां के मुस्लिम समाज को टारगेट करते हुए उन्हें घूसपैठिये बतला रहे हैं ताकि इसके आधार पर हिंदुओं
का ध्रुवीकरण हो और वह उनका वोट हासिल कर सकें। उनका यह कृत्य ‘नशा खुरानी’ गिरोह की याद दिलाता है। भाजपा बी ग्रेड द्वारा इसी तर्ज पर बिहार के लोगों को चकमा देकर उन्हें धोखे में रखकर आज तक ठगने का काम किया गया है। उनके इसी तरह के भड़कीले सांप्रदायिक और संविधान विरोधी जहर का दंश मुल्क हिंदुत्व की पुड़िया के रूप में पीने को अभिशप्त हो चुका है। भाजपा के ये समाज विरोधी तत्व बिहार के उन्हीं ‘नशा खुरानी’ समूह के राजनीतिक अपवर्जन हैं, जिनकी असलियत का पर्दाफाश बिहार चुनाव में होने ही वाला है।
इस चुनाव में एक तरफ एनडीए के नीतीश-भाजपा शासन के 17 वर्षों के सो कॉल्ड ‘विकास (?) का विज्ञापन मॉडल’ है। एक ऐसा विकास जो महज फोटोजेनिक इवेंट है, कैमरे के फ्लैश में जगमगाता-सा, लेकिन लैपटाप की स्क्रीन पर ‘रोजगार नॉट फाउंड’ दिखाता हुआ। विहार में एनडीए की सभाओं में हर मंच पर उद्घाटन का फीता कटता है और जुमलों की बरसात की जाती है। दूसरी ओर, महागठबंधन के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव का बिहार विकास का 17 और 18 महीने का क्रांतिकारी ‘रोजगार मॉडल’ है। इसमें अंतर वस इतना भर का है कि एनडीए ने 17 साल शासन किये, लेकिन बिहार के लोगों के लिए न रोजगार पैदा किये गये, न विकास के दूसरे अवसर पैदा हुए। हर चुनाव में प्रधानमंत्री द्वारा बिहार में वायदों की झड़ी लगाई गई, लेकिन उसे कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। बिहार के नेता प्रतिपक्ष उचित ही यह सवाल उठाते रहे हैं कि मोदी जी फैक्ट्री लगाएंगे गुजरात में और विक्ट्री चाहिए उन्हें बिहार में।
बिहार को स्पेशल राज्य का दर्जा देने का सवाल हो, या पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की बात-विहारियों की इन दोनों ही मांगों को उन्होंने अनसुना किया। प्रधानमंत्री ने आन्ध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तरह न तो बिहार को विशेष राहत पैकेज दी, न यहां के बंद पड़े उद्योगों को पुनर्जीवित किया। भाजपा के 11 वर्ष और नीतीश के 17 वर्षों का रिकॉर्ड बतलाता है कि बिहार में न तो युवाओं को रोजगार मिला, न ही किसी तरह के उद्योग लगाये गए। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो काम अपेक्षित थे, वह हुए ही नहीं, उल्टे प्राइवेट हॉस्पिटलों और बड़े-बड़े कोचिंग संस्थाओं का हव बनकर रह गया बिहार। यह उनकी अनदेखी का ही परिणाम है कि बिहार आज विकास के हरेक सूचकांक पर देश के सबसे पिछड़े हुए राज्यों में शुमार किया जाता है। बिहार की शासन सत्ता में तेजस्वी यादव को बहुत कम अवधि का अवसर मिला, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने अपने सरोकार की जो नजीर पेश की, उसे भी देखा जाना चाहिए। उन्होंने अपने पहले 17 महीने की सरकार में बिहार में 5 लाख नौकरियां दीं, नियोजन प्रक्रिया को गति दिया, संविदा कर्मियों को स्थायित्व दिया और दूसरे 18 महीने के कार्यकाल में आईटी और टूरिज्म पॉलिसी बनाई, शिक्षा और स्वास्थ्य के ढांचे में सुधार लाये, वर्षों से स्वास्थ्य विभाग में काम रहे उन डॉक्टरों को अपदस्थ किया जो डयूटी नहीं करते थे और सरकार की तनख्वाह उठाते थे। उन्होंने बिहार के गरीब युवाओं की
आकांक्षा को राजनीति के केंद्र में ला दिया। साथ ही विहार के विकास के लिए अपेक्षित वातावरण बनाये। विकास के इस ‘रोजगार मॉडल’ में बिहार की जनता ने बम्पर भर्तियां होते देखी हैं। जाहिर है, इस बार ‘हर घर नौकरी’ देने की उनकी बचनबद्धता, मोदी जी की तरह जुमलेबाजी भर नहीं होगी, बल्कि उसको वह हर हाल में संभव कर दिखाएंगे। वह उम्र में भले ही कच्चे हों, मगर जुबान के पक्के हैं। बिहार से पलायन रोकने और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देकर उसे स्थानीय रोजगार सृजन से जोड़ने के साथ ही बिहार विकास का एक विस्तृत रोड मैप उनके पास है। उनके इस विजन के सामने एनडीए कहीं नहीं ठहरता। जाहिर है इस चुनाव में एनडीए को अहसास हो गया है कि अब उनका सूपड़ा साफ होने ही वाला है। इसलिए उन्होंने पूरी जोर आजमाइश लगा दी है ताकि किसी तरह उनकी सत्ता कायम रहे। लेकिन सवाल यह है कि आखिर ‘नारे’ और आश्वासनों तक महदूद रहनेवाली इस सरकार को विहार में क्यों बने रहना चाहिए?
चुनाव के ऐन पहले भाजपा और जदयू ने सरकारी संसाधनों को वोट हासिल करने की नियत से जिस तरह से बंदरबांट किया है, उससे इनकी मानसिक दरिद्रता और उनकी असुरक्षा भावना का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह भी समझा जा सकता है कि उनकी प्राथमिकता क्या है? अगर कोई सरकार वर्षों तक अपने आयोगों/निगमों को निष्क्रिय बनाये रखे, जन कल्याणकारी कामों को पूरी तरह निष्क्रियता का पर्याय बना दे, जिस राज्य की विधानमंडल की करोड़ों रुपयों से संचालित हो रही सारी कमिटियां लगभग मरनासन्न हो उठे, जनता के कामों से महरूम हो वह नेताओं के ऐशोआराम का साधन मात्र बनकर रह जाए और जहां की भाषाई अकादमियां वर्षों से अपने विकास के लिए शासक दल की कृपापात्र बनी रहे और उन सब को ऐन चुनाव के वक्त सक्रिय कर दिया जाए ताकि इससे उनका वोट बैंक बढ़ेगा, तो इससे अधिक हास्यास्पद भला और क्या हो सकता है! बिहार में जारी यह यथास्थितिवाद नीतीश कुमार के बहुप्रचारित सुशासन एजेंडे का कड़वा सच है जो अबतक राज्य के संसाधनों की कीमत पर प्रचारतंत्र के माध्यम से ढका गया है। अपने 20 वर्षों के शासन में उन्होंने बिहार की जनता की कीमत पर संस्थागत लूटतंत्र और बेलगाम नौकरशाही की जो जड़ें फैलायी हैं, उसमें पूरा बिहार पिस रहा है। नीतीश कुमार द्वारा बिहार की राजनीतिक संस्कृति को पूरी तरह खत्म कर जिस तरह से नौकरशाही की जड़ें सींचने का काम किया गया, वह आज बेशुमार लूटतंत्र के रूप में हमारे सामने है। सरकार ने बिहार की संस्थाओं की स्वायतत्ता को जिस तरह नेस्तनाबूद किया है, वह शायद ही उबर पाये। अखबारों की स्वतंत्रता का तो उसने पहले ही गला घोंट दिया था।
नियमों के विरूद्ध अगर कोई सत्ता बगैर यह सर्वे किये कि महिलाएं रोजगार कर सकती हैं या नहीं, उनके खाते में दस-दस हजार रुपये डलवाने के उपक्रम में लग जाए तो इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वह किस तरह की जड़ता का पोषण कर रही है। बिहार की जमीनी सच्चाई यह है कि बिहार की तकरीबन 1.09 करोड़ महिलाओं ने माइक्रोफिनांस कम्पनियों से तकरीबन 30 हजार रुपये का कर्ज ले रखा है। त्रासद पहलू यह कि वसूली एजेंटों की दबिश में ऐसी 20 कर्जदार महिलाओं ने खुदकुशी कर ली है। बिहार सरकार इस कड़वी हकीकत को ओझल करके चुनाव से पहले पैसे बांटकर अपनी असफलता को इसी तरह खैरात बांटकर कम करना चाहती है। बिहार की ऐसी असंख्य गरीब महिलाएं आज कॉरपोरेट महाजन के कर्ज के जाल में बुरी तरह पिस रही हैं। इनकी इसी स्थिति को देखते हुए महागठबंधन ने अपने घोषणापत्र में माइक्रोफिनांस और जीविका दीदीयों की कर्ज माफी की बात कही है। इससे आगे बढ़कर यह वचनबद्धता भी तेजस्वी ने दुहराई है कि महिलाओं को प्रताड़ित करनेवाली इन फिनांश कम्पनियों को वे नियमों के दायरे में लाएंगे और कानून सम्मत जो भी कार्रवाई होगी करेंगे। नीतीश कुमार का जीविका मिशन योजना किस तरह असफल रहा है, हम सब इस बात से भलीभांति अवगत हैं। सरकार को अपनी इन कमियों को दुरूस्त करना था, लेकिन वह इस पर पर्दादारी कर रही है। सरकार के उद्यमी योजना का हाल भी किसी से छिपा नहीं है।
यह सरकार अपने को चाहे जितना महिला हितैषी होने का दावा कर ले, सच तो यह है कि इनके समय में महिलाओं के बलात्कार और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती ही गई हैं। मुजफ्फरपुर का चर्चित शेल्टर होम कांड को भला कोई भी संवेदनशील आदमी कैसे भूलेगा, सरकारी संरक्षण में जिन असहाय बच्चियों का बलात्कार होता रहा, उसका सच पूरे देश के सामने है। एक करोड़ महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रुपये की रेबड़ियां बांटकर इस सरकार ने बिहार के राजकीय कोष को जिस खस्ताहाली में पहुंचाया है, आनेवाली सरकार को उससे निबटने में पसीने छूट जाएंगे।
बिहार में एनडीए की वर्षों की सत्ता पोषित इन कार्रगुजारियों से यहां के आम जनमानस में गहरा क्षोभ है। भ्रष्ट नौकरशाही और लूटतंत्र में आकंठ डूबे मंत्रियों का पूरा कुनबा आये दिन सोशल मीडिया के
सामने बेपर्द होता दिख रहा है। आउट सोर्सिंग, शराबबंदी और नियुक्तियों में विहार की जनता की गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पानी की तरह बहाया गया है। बिहार की जनता नीतीश मोदी के शासन में जारी इस तरह की संगठित लूट से पूरी तरह बदहाल हो चुकी है। इस बदहाली से निकलने का एक ही रास्ता है और वह है बिहार की सत्ता शासन से उनकी बेदखली। इस चुनाव में बिहार की जनता के सामने ‘विकास’ और ‘विनाश’ के दो रास्ते हैं। एनडीए गठबंधन में पिछले 17 वर्षों के शासन में बिहार का सभी स्तरों पर क्षरण हुआ है।
रोजगारहीनता, पलायन, महिला सुरक्षा, बढ़ती महंगाई, स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़े-अतिपिछड़े समुदायों पर बढ़ते दमन, उनके अधिकारों की हकमारी, कृषि और पशुपालन क्षेत्र
की खस्ताहाली, शिक्षा क्षेत्र की बदहाली, शिक्षक भर्ती में अनियमितता, सहकारी अर्थव्यवस्था और रोजगार आधारित मॉडल की भ्रूण हत्या बिहार का कुल जमा यही हासिल है, जिसपर पर्दा डालने के लिए यह सरकार ‘जंगलराज’ और ‘घुसपैठिये’ के फर्जी नैरेटिव से आजतक ढकने
का काम करती रही है। तेजस्वी यादव के पास इन सभी निष्कियताओं से ऊपर उठकर बिहार के संपूर्ण विकास का ब्लू प्रिंट है, जिसे वे अपने सार्वजनिक भाषणों में अभिव्यक्त करते रहे हैं और अभी-अभी महागठबंधन द्वारा जारी अपने विस्तृत संकल्प पत्र में भी उन्होंने इस संपूर्ण विजन को रेखांकित किया है। इस घोषणा-पत्र में यूं तो सभी वर्गों का विकास का ब्लू प्रिंट रखा गया है, लेकिन लेबर गणना और शराबबंदी कानून की समीक्षा- खासतौर से उल्लेखनीय हैं। आरक्षण पर लगातार एनएफस की लटक रही तलवार को भी उन्होंने खत्म करने की बात कही है। इसके साथ ही बोधगया स्थित बौद्ध मंदिर प्रबंधन बौद्ध धर्मावलम्बियों को सुपुर्द करने की बात कही गई है।
तेजस्वी प्रसाद यादव द्वारा भूमिहीन लोगों को आवासीय जमीन देने और फुटपाथी दुकानदारों के बारे में सजगतापूर्वक नीतियां बनाने के आगे भला अडानी अंबानी का हित पोषण करने वाले गृहमंत्री और
प्रधानमंत्री कहां ठहरते हैं? बिहार आकर अमित शाह कह रहे हैं कि बिहार में जमीन नहीं है इसलिए यहां फैक्ट्रियां नहीं बैठाई जा सकतीं। जबकि इसी बिहार में भागलपुर के पीरपैंती में साढ़े दस हजार एकड़ जमीन महज एक रुपये प्रति एकड़ की दर से थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए गौतम अदानी को भेंट कर दी गई है। वहां विस्थापित होने वाले करीब 10 लाख लोग मुआवजा और पुनर्वास हेतु संघर्ष कर रहे हैं। महागठबंधन ने अपने घोषणा पत्र में यह कहा है कि जमीन अधिग्रहण के मामले में किसानों के हितों का पूरा ख्याल रखा जाएगा। 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाएगा और अधिगृहीत भूमि की कीमत बाजार दर से चार गुना दी जाएगी। शाह का यह गैर जिम्मेदाराना बयान उनकी बिहार विरोधी घृणा को संकेतित करता है, क्या बिहार की जनता इस चुनाव में, विहार विरोधी कृत्य की सजा उन्हें देगी?
विहार का यह चुनाव बेहद खास है। यह महज ‘विज्ञापन बनाम नियुक्ति’ और ‘विकास बनाम विनाश’ का चुनाव भर नहीं है। सच तो यह है कि यह भारत की साझी विरासत को बचाने और सांप्रदायिक फासीवाद को जड़ से उखाड़ने फेंकने का भी चुनाव है। ऐसे में बिहार की जनता को यह तय करना है कि वे किस ओर हैं। हमारा ख्याल है आपका वोट महागठबंधन के पक्ष में होना चाहिए। आपको मालूम है विपक्ष के मुख्यमंत्री के दावेदार तेजस्वी यादव ने किस तरह 17 वर्षों की बिहार की प्रतिगामी राजनीति को अपने समय के सबसे चर्चित डिस्कोर्स ‘रोजगार’ में बदला है। भाजपा की पूरी दंगाई टोली हताशा में आकर
सिर्फ ‘जंगल राज’ का सालों पुराना घिसा-पिटा राग अलाप रही है। बिहार के आम अवाम में डबल इंजन सरकार के खिलाफ गुस्सा जंगल में आग की तरह भड़क चुकी है, जो निश्चय ही जनतंत्र के इस महापर्व में इस जातिवादी-फासीवादी दैत्य को भस्म कर देगी। वास्तव में यह तेजस्वी का प्रण ही है, जो बिहार के करोड़ों गरीबों का रण बना चुका है।

