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बिहार का एग्जिट पोल झूठा क्यों और बीजेपी क्यों हार रही है बिहार चुनाव

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ओम शंकर

बिहार के हालिया चुनाव में जो तस्वीर एग्जिट पोल के माध्यम से पेश की जा रही है, वह न केवल भ्रामक है बल्कि सुनियोजित “नैरेटिव मैनेजमेंट” का हिस्सा भी प्रतीत होती है। बिहार की धरती पर वास्तविकता कुछ और है — और वह यह है कि बीजेपी बिहार में अपने ही बिछाए जाल में फँस चुकी है।

दरअसल, बिहार की राजनीति को समझने के लिए हमें बाहर से दिखने वाले NDA गठबंधन और अंदर चल रहे सत्ता-संघर्ष के भेद को गहराई से समझना होगा।

आपको याद होगा, 2014 से पहले की मोदी – नीतीश की अदावत और पिछली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए चिराग पासवान को गठबंधन से बाहर रखकर किस तरह चुनाव लड़वाया था।

चिराग पासवान उस समय बीजेपी के “ट्रोजन हॉर्स” की तरह इस्तेमाल हुए — जिनका एकमात्र उद्देश्य था नीतीश कुमार और जेडीयू को परास्त करना, जिसमें वो सफल भी रहे थे।

यह कटु अनुभव नीतीश जी कभी नहीं भूले।

इस बार भी बीजेपी ने वही पुरानी साज़िश दोहराई — चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को एक बार फिर मोहरे की तरह इस्तेमाल कर जेडीयू की सीटें कम करवाईं।

इस तरह ऊपर से दिखने में NDA गठबन्धन में सब कुछ “संतुलित” लगता है, लेकिन अंदरखाने बीजेपी ने चिराग और कुशवाहा की कई सीटों पर अपने ही प्रत्याशी उतार दिए, ताकि नीतीश जी को इस चुनाव बाद महाराष्ट्र की तरह निपटाया जा सके, लेकिन वो भूल गए कि ये महाराष्ट नहीं बिहार है।

सबसे बड़ा राजनीतिक संकेत यह था कि इस बार बीजेपी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया।

इससे नीतीश जी और उनके समर्थकों को स्पष्ट संकेत गया— बीजेपी चुनाव के बाद नीतीश कुमार को हाशिए पर धकेलकर बीजेपी की सरकार बनाना चाहती है, ताकि उसकी केंद्रीय सत्ता कायम रहे।

तीन सालों से बीजेपी और RSS प्रशांत किशोर पांडे को भी नीतीश कुमार के विकल्प के रूप में गढ़ने में जुटे थे। कंसल्टेंसी के नाम पर उसे करोड़ों रुपये देकर उन्हें बिहार में “नई राजनीति” का चेहरा बनाने की कोशिश की, ताकि चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर उनकी पार्टी बीजेपी सरकार के निर्माण में सहयोग दें।

लेकिन यह सारा खेल नीतीश जी को पता चल गया जो बीजेपी पर ही उल्टा पड़ गया।

प्रशांत किशोर पांडे के उम्मीदवारों के जरिए उठाए गए मुद्दे — भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, पलायन और बीजेपी सरकार की नाकामियां — आम जनता में बीजेपी के प्रति नाराज़गी को और गहरा कर गए।

PkP द्वारा बड़ी संख्या में उच्च जाति आधारित टिकट वितरण ने भी इस चुनाव में बीजेपी के सामाजिक संतुलन को और बिगाड़ दिया।

नीतीश कुमार ने जैसे ही बीजेपी की इन साज़िशों को भांपा, उन्होंने रणनीतिक पलटवार किया।

इस चुनाव में पहले तो उन्होंने बीजेपी विचारधारा के उम्मीदवारों का नाम काटकर अपने विश्वासपात्र उम्मीदवारों को ही टिकट दिए और नारे दिए — “लालटेन ही तीर है।”

यह एक चतुर राजनीतिक संदेश था, जिससे जेडीयू और राजद के बीच अघोषित गठबंधन हुआ — नीतीश कुमार ने अपने मतदाताओं को संकेत दिया कि जहाँ बीजेपी उम्मीदवार हों, वहाँ वोट राजद को जाए।

परिणाम यह हुआ कि जहाँ जेडीयू कमजोर थी वहाँ राजद को वोट मिले, और जहाँ राजद कमजोर थी, वहाँ जेडीयू को।

दोनों दलों के मतदाता मौन रूप से एक-दूसरे को सहयोग करते रहे।

यह अघोषित महागठबंधन बीजेपी के लिए सबसे बड़ा झटका साबित हुआ।

तेजस्वी यादव ने भी इसी वजह से पूरे चुनाव में नीतीश कुमार पर कोई तीखा हमला नहीं किया।

इस तरह नीतीश जी और महागठबंधन ने चतुराई से “वोट सिंक्रोनाइजेशन” की राजनीति की, जबकि बीजेपी अपने सहयोगियों के खिलाफ ही जंग लड़ती रही।

नतीजा वही — “चौबे चले छब्बे बनने, दुबे बनके लौटे।”

बीजेपी नीतीश को खत्म करने चली थी, और खुद अपने ही षड्यंत्र में फंस गई।

इसलिए यह बिहार चुनाव बीजेपी–RSS और मोदी–शाह की राजनीति के लिए कब्रगाह साबित हो सकता है।

कहने को, एनडीए गठबंधन बाहर से एकजुट दिखा, लेकिन अंदर से वह टुकड़े – टुकड़ों में बिखरा है।

दूसरी ओर, महागठबंधन बाहर से भले कमजोर दिखे, पर भीतर से वह अनुशासित, रणनीतिक और भावनात्मक रूप से एकजुट था — रोज़गार के वादे, स्पष्ट नेतृत्व और सामाजिक संतुलन के साथ।

बीजेपी द्वारा धन, बल, छल और चुनाव आयोग के माध्यम से खेल पलटने की पूरी कोशिश जारी है — गाँव-गाँव पैसे बाँटे, मीडिया खरीदी, झूठे ओपिनियन- एग्जिट पोल चलवाए — लेकिन जनता ने इस बार सब पहचान लिया।

हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, दिल्ली बम ब्लास्ट, और “जंगलराज” के पुराने पिटे हुए नारों से इस बार जनता प्रभावित नहीं हुई।

बिहार ने तय कर लिया है — अब वह विकास, रोजगार और सम्मान की राजनीति चाहता है, धोखे और नफरत की राजनीति नहीं।

इसलिए एग्जिट पोल जो दिखा रहे हैं, वह केवल एक भ्रम है, ताकि चुनावी धांधली को जायज ठहराया जा सके— हकीकत यह है कि बिहार में बीजेपी की पकड़ सबसे ढीली पड़ चुकी है, और उसकी सत्ता की नींव न केवल पटना में, बल्कि दिल्ली में भी डगमगा रही है।

बिहार की जनता इस बार सिर्फ सरकार नहीं, बल्कि साज़िश का अंत करने जा रही है, बस कल तक का इंतजार है।