अलाव की आग से निकले दादा की किस्से कहानियां स्मृतियों में शेष
राजकुमार यादव की रिपोर्ट
पटना /गांव की सभ्यता – संस्कृति, दादा – दादीजी की किस्से कहानियां स्मृतियों में शेष रह गयी है। पहले इंसान चार माह की कड़ाके की सर्दी का मौसम अलाव की आग ताप किस्से कहानियां सुनाते – सुनाते काट लेटे थे। ठंड के मौसम में बच्चे की झुंड चारागाह एवं जंगल से सुखी लकड़ियां, कंडे एवं गोबर के कड़ा चुनकर लातें थें। शाम को जब इंसान अपने दरवाजे पर अलाव जलाते तो सबके चेहरे खिल जाते थे और लोग कड़ाके की सर्दी ठुठरन में आग ताप कर गर्म महसूस करते थे।
अलाव के चारों तरफ बोडे व पीढा पर बैठ कर आग का अलग आनंद उठाते थें। अलाव में बुजुर्ग एवं नवजवानों की टोली धीरे-धीरे चौपाल का रुप ले लेता था लोग अपने -अपने झोली से भूजा निकाल कर खानें लगते थे और बच्चे इधर उधर कौतूहल मचाते रहते थे बुजुर्ग आग के किनारे बैठ कर किस्से कहानियां सुनाने लगते और श्रोताओं को कई उदाहरण मिल जाते। बच्चे अपने दादा – दादीजी की किस्से कहानियां सुनकर भाव विभोर हो जातें थें जों उन्हें आने वाले समय में सम्भलने का काफी सीख मिलती।
चौपाल में कभी – कभी परिवार से कई तरह के गिलवे – शिकायत भी आते उसे वहीं कर लिये जातें थें। चौपाल में आग के किस्से के रिश्ते पर समाज के कई समस्याओं के समाधान का हल ढूंढ लिया जाता था और उसे समाधान कर लिया जाता था। बच्चे कौतूहल मचाते हुए आग में आलू, शंकर कंद, मटर की छेमिया पकाने के लिए डाल देते थे और सुबह उठकर नाश्ते में बड़े चाव के साथ खाते थे।उसका आनंद कुछ और था। बच्चे दादा दादी की किस्से कहानियां को ध्यानपूर्वक सुनकर अपने जीवन में उतारते थे। लेकिन जब से आर्थिक युग में रहन -सहन,खान – पान, शिक्षा , पश्चिम सभ्यता का विस्तार से समाज में बदलाव आया और संयुक्त परिवार टुटते चला गया। अब बच्चे दादा दादी की किस्से कहानियां नहीं सुनते। आधुनिकता के चौंका चौध में नये नये टेक्नोलॉजी ने अपना स्थान समाज में बना लिया है।
मोबाइल के नेटवर्क ने भारतीय संस्कृति को अलग-थलग कर खत्म कर दिया है जिससे गांव की चौपाल, ठंड की अलाव अब इंटरनेट पर ढुंढे जायेंगे।रामकुंज पब्लिक स्कूल बिहटा में अलाव जलाकर कर विस्तृत चर्चा करते हुए प्राचार्य सह राजनीतिक विश्लेषक रंजय कुमार , प्रो सुदामा प्रसाद, प्रो वीरेंद्र कुमार सिंह, संकेश कुमार, धनंजय कुमार, अशोक कुमार इत्यादि अन्य लोग शामिल थे।